शुक्रवार, 31 जुलाई 2009
नारी
इस कविता को मैंने किसी पत्रिका में पडा था, और ये कविता मुझे अच्छी लगी अत: मैइस कविता को यहाँ लिख रहा हूँ -
मजबूरी होती है नारी , किश्मत पर रोती है नारी
लगता है जैसे जीवन में पाकर भी खोती है नारी
जब देखो तब अपने मुह को आंसू से धोती है नारी
अक्सर थक कर और हर कर थोड़ा सा सोती है नारी
पाती है कांटें ही कांटें फूल भले बोती है नारी
दैहिक सुख के चाँद छडों में हीरा या मोती है नारी
परम्पराओं के पिंजरे में चिडया सी होती है नारी
"पर हम ये भूल गए है जीवन की ज्योति है"
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