बुधवार, 5 मई 2010

मन मरुस्थल -----कविता ---सन्तोष कुमार "प्यासा"

मन में है एक विस्तृत मरुस्थल


या मन ही है मरुस्थल




रेत के कणों से ज्यादा विस्तृत विचार है


रह-रह कर सुलगती है उम्मीदों की अनल


विषैले रेतीले बिच्छुओं की भांति



डंक मारते अरमाँ हर पल



मै "प्यासा" हूँ मन भी "प्यासा"



पागल है सब ढूढे मरुस्थल में जल



मन में है एक विस्तृत मरुस्थल



या मन ही है मरुस्थल



वक्त के इक झोके ने मिटा दिया



आशा-निराशा के कण चुन कर बनाया था जो महल



मन मरुस्थल, मन में है मरुस्थल

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