बुधवार, 12 मई 2010

बुढिया -------- {लघुकथा} ----------- सन्तोष कुमार "प्यासा"




कल शाम को पढने के बाद सोंचा कुछ सब्जी ले आई जाए ! यही उद्देश्य लेकर सब्जी मंडी पहुँच गए ! मंडी में बहुत भीड़ थी ! दुकानदार चिल्ला-चिल्ला कर भाव बता रहे थे ! सब अपनी अपनी सुध में थे ! तभी मेरी नजर एक ऐसे स्थान पर पड़ी जहां पर सड़ी सब्जिओं का ढेर पड़ा था ! जिसके पास करीब ५५-६० वर्ष की एक वृद्धा बैठी थी ! उसके उसके पूरे बाल चाँदी के रंग के थे ! चेहरे पर अजीब सी शिकन और चिंता की लकीरे साफ़ झलक रही थी ! तन पर हरे रंग की जीर्ण मलिन साड़ी और एक कपडे का थैला उसके पास था ! सब्जी के ढेर से वह लोगों की नजरें बचाकर पालक के पत्तों को अपने थैले में रख रही थी ! पहले वह सरसरी निगाह से लोगों को देखती फिर पालक के सही पत्तों का चुनाव कर अपने थैले में रख लेती ! इस दृश्य को देख कर मैंने उन तमाम लोगों और अपने आप को धिक्कारा ! मेरे मन ने मुझसे कहा "तू इस दीन, दुखिया, असहाय वृद्धा की मज़बूरी को तमाशे की तरह देख रहा है ! मै अपने मन की बातों को सुन ही रहा था, तभी दो व्यक्ति आए उनमे से एक ने बिना कुछ बोले पूंछे उस वृद्धा का थैला उठा कर दूर फेंक दिया ! दुसरे व्यक्ति ने चिल्ला कर कहा " क्यू री बुढिया एक बार की बात तेरे दिमाग में नहीं घुसती क्या ? कल ही तुझसे कहा था न इस ढेर से दूर रहना, ये सब्जी जानवरों के चाराबाज़ार में बेचने के लिए है तेरे लिए नहीं !" बेचारी वृद्धा मजबूरीवस् निरुत्तर थी ! उसकी आँखों से मजबूरी की धारा बह निकली ! वह उठी और अपना थैला लेकर चली गई !

1 टिप्पणी:

अपना अमूल्य समय निकालने के लिए धन्यवाद
क्रप्या दोबारा पधारे ! आपके विचार हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं !