शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

अयोध्या के चूल्हे पर राजनीति की खिचडी ! ******** सन्तोष कुमार "प्यासा"

 अयोध्या के आगामी नतीजे ने एक बार फिर से यह सिद्ध कर दिया है कि देश के हित-अहित से हमारी सरकार को कोई वास्ता नही है। एक बार फिर से राजनीतिक पार्टियाॅ और मजहबी संस्थाएॅ देश की राष्टीय एकता में दरार डालने को तैयार हैं। देश की वर्तमान स्थिति को देखा जाये तो अयोध्या मामले का सबसे अच्छा विकल्प आपसी सुलह है, लेकिन अपने आप को विवेकवान कहनेवाले दोनो पक्षों के धर्माचार्य एवं प्रमुख राजनीतिक दल इस दिशा में कदम बडाने मे सकुचा रहे है। शायद इनके दिमाग में यह बात नही घुस रही की ‘‘कोई भी धर्म राष्ट और मानवता से बडा नही होता’’। अगर देखा जाये तो हिन्दू या मुश्लिम एक दूसरे के विरोधी नही है। इनके दिमाग धर्म के नाम पर लड-मरने का कीडा घुसेडने का कार्य कुछ धूर्त धर्माचार्य ही करते है। इतिहास देखें तो ज्ञात होता है कि जितने भी धर्म के नाम पर दंगे हुए है सबमें मासूम जनता को बहकाने का कार्य कुछ धर्माचारों एवं राजनीतिक दलों ने ही किया है। अयोध्या मामले में आपसी सुलह न हो सकी तो इसका टलना ही बेहतर होगा, क्योंकी न्यायिक फैसला किसी एक पक्ष मे होगा जिससे दूसरे पक्ष के कुछ धर्माचारों और राजनीतिक दल मासूम जनता को धर्म के नाम पर लडवाने से नही कतराएगी। अयोध्या के आगामी फैसले को देखते हुए ‘‘राष्टमण्ल खेलों’’ को टालने के लिये सुप्रीम कोर्ट मे अर्जी दी गई है। यहाॅ पर सरकार को यह विचार करना चाहिए कि देश के लिए ‘‘अयोध्या का फैसला’’ ज्यादा जरूरी है जिससे देश में अशांती फैल सकती है। या राष्टमण्डल खेल जिससे विश्व में हमारे देश की नयी छवी बननी है। अयोध्या का फैसला सुनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि अभी तो सिर्फ घाटी ही ‘‘अलगाववाद की चिन्गारी’’ से सुलग रही है। यदि अयोध्या का फैसला किसी एक पक्ष मे हुआ (जिसकी सम्भावना अधिक है) तो पूरा देश ‘‘अशांती की लपटों’’ में घिर सकता है। जिसका फायदा भारत के दुश्मन देश उठा सकतें है।... 

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