देखा है मैंने इश्क में ज़िन्दगी को संवरते हुए
चाँद की आरजू में चांदनी को निखरते हुए
इक लम्हे में सिमट सी गई है ज़िन्दगी मेरी
महसूस किया है मैंने वक्त को ठहरते हुए
डर लगने लगा है अब तो, सपनो को सजाने में भी
जब से देखा है हंसी ख्वाबों को बिखरते हुए
अब तो सामना भी हो जाये तो वो मुह फिर लेते हैं अपना
पहले तो बिछा देते थे नजरो को अपनी, जब हम निकलते थे
उनके रविस से गुजरते हुए...
(रविस = (सुन्दर) राह)
Bahut khoob Santosh ji,
जवाब देंहटाएंaap har line me safal rahen hain.
Kripya mere blogg par bhi badhare.
www.ravirajbhar.blogspot.com
बेहतरीन अभिव्यक्ति.....
जवाब देंहटाएंMast hai Santosh bhai Lage raho.....
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