शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

सिर्फ तुम {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"



ये चाहत थी दिल की
या प्यार का पागलपन
तनहाइयाँ थी, रुशवाइयां थीं
पर सुना न था दिल का अंजुमन
जब तुम न थे,
तब भी थे सिर्फ तुम,
जब तुम थे तब भी थे,
सिर्फ तुम,
अब तुम नहीं हो,
लेकिन फिर भी हो
सिर्फ तुम !
मैंने तो हर एक खता का इकरार किया
खुद से ज्यादा तुम पर ऐतबार किया
पर फिर भी क्यूँ न हो सके तुम मेरे
क्यूँ मिली मुझे तुम्हारी बेरुखी,
 और गम के अँधेरे,
मेरी चाहत तो कुछ ज्यादा न थी,
मैंने तो सिर्फ चाहा, तुम मेरा साथ दो
मेरे हांथों में तुम, खुद अपना हाथ दो !
करो मुझे  शिकवे गिले
और मैं न कुछ बोलूं
बस बता दो क्या थी मेरी गलती
मै तुम्हारे बाँहों में जी भर कर रोलूं !
अगर है तुम्हे, थोड़ी सी भी फिक्र मेरी
तो रोक लो मुझे, नहीं मै हो जाऊंगा,
 तनहाइयों में गुम,
तुम्हारे दिल की तो पता नहीं मुझे
   जब तुम न थे,
तब भी थे सिर्फ तुम,
जब तुम थे तब भी थे,
सिर्फ तुम,
अब तुम नहीं हो,
लेकिन फिर भी हो
सिर्फ तुम !


 

1 टिप्पणी:

अपना अमूल्य समय निकालने के लिए धन्यवाद
क्रप्या दोबारा पधारे ! आपके विचार हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं !