शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011

सिलसिला सवालातों का {ग़ज़ल} सन्तोष कुमार "प्यासा"

इक नजर भर देख लूँ तुझे, अब वक़्त कहाँ है बातों का
 जिस्म से रूह हो रही जुदा, उजड़ा मौसम मुलाकातों का
क्या बयां करूँ हालत-ए-दिल, अब भला क्या आरजू करूँ
 इश्क की रहो राहों में निकल रहा   जनाजा मेरे जज्बातों का
रोशन है दिलकश शमा हर तरफ, पर बुझ गया है दिल
शायद यही है तक़दीर मेरी, शिकवा करूँ तो किससे इन हालातों का
जवाबों-तलब की राहों में भटकते रहे हम उम्र भर
कुछ यूँ रहा है ज़िन्दगी में सिलसिला सवालातों का
{मानवीय संवेदनाओ को समझना वाकई मुश्किल है, कभी-२ दिल और दिमाग परस्पर विरोधी हो जाते है, मेरे मष्तिष्क के अन्तरम में उपरोक्त पंकितियों का कोई भाव  नहीं है, और न ही कोई विशेष कारण ही जिससे की मै ऐसी रचना लिख सकूँ, पर शायद दिल ने जरुर ऐसा कुछ महसूस किया है जिसे दिमाग अभी तक समझ नहीं पाया! }

1 टिप्पणी:

अपना अमूल्य समय निकालने के लिए धन्यवाद
क्रप्या दोबारा पधारे ! आपके विचार हमारे लिए महत्वपूर्ण हैं !