कुछ दिन पहले मैंने न लिखने का निर्णय लिया था !
जिसे निभा नहीं पाया और फिर से उठा ली कलम !
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विचारो का सूरज
विपत्तिओं की बदली में खो गया
छुप गए शब्द
सुनकर आशंकाओं की गडगडाहट
भावनाओं की तीव्र वृष्टि
बहा ले गई सारे सन्दर्भ
डरा सहमा है मन
सोंचता है
अब बचा भी क्या है
क्या लिखूं ?
कैसे लिखूं ?
किसके लिए लिखूं ?
शायद खुद से हार चुका है मन
एक अर्थहीन निर्णय लिया
मन ने
निर्णय, न लिखने का !
पर पता नहीं क्यूँ
कुछ दिन भी कायम न रह सका निर्णय पर
लोगों की बातें बिच्छु की भांति डंक मार रही हैं
कुछ अनजाने विचार कौंधते है मन में
कुछ है जो टीसता है
लिखने से ज्यादा
न लिखना
कष्टदायी है
दुःखदायी है
यही सोंच कर फिर से उठा ली है कलम !
शुक्रवार, 21 मई 2010
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bahut sundar likha ab mat rokoyega kalam ko behne dijiye
जवाब देंहटाएंबहुत सही किया...पुनः स्वागत है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर वापसी ,विचारणीय कविता / उम्दा प्रस्तुती /संतोष जी हम चाहते हैं की इंसानियत की मुहीम में आप भी अपना योगदान दें कुछ ईमेल भेजकर / पढ़ें इस पोस्ट को और हर संभव अपनी तरफ से प्रयास करें ------ http://honestyprojectrealdemocracy.blogspot.com/2010/05/blog-post_20.html
जवाब देंहटाएंवाह!........
जवाब देंहटाएंअंतर्मन की उलझन से समझ कर आये है आप!स्वागत है आपका!
जो द्वंद्ध आपने जिया है पिछले दिनों उसे बखूबी शब्दों में पिरोया है....
शुभकामनाये स्वीकार करे....
कुंवर जी,
संतोषजी,
जवाब देंहटाएंयदि आप लिखना बंद कर देते तो हम ऐसी उम्दा रचना से वंचित रह जाते । वैसे आप ये मान कर चलिये कि कवि केवल अपने मन की संतुष्टि के लिये लिखता है । कोई पढ़े या न पढ़े, किसी को पसन्द आये या न आये । इसलिये हारियेगा नहीँ ।
ye aapsb k sneh ka fal hai.
जवाब देंहटाएंyadi aap mera margdarshan n karte to shayd mai n likh pata. mai ap sabka abhari rahunga !
ab mere likhne ka shery ap sabko hai.
aap ka prem aise hi milta rahe bas yahi chahat hai